तहकीकात
जहाँ पर वो निरन्तर भूख की फ सलें उगातें हैं,
हमारे मुल्क में ऐसे कई लंबे अहाते हैं।
जरूरत है कि तहकीकात हो ईमानदारी से,
सभी अपराध कुछ न कुछ गवाही छोड़ जाते हैं।
हमारे घर बदल डाले गये श्मशानों में यारों,
जहाँ हम रोज मुर्दा हो चुके रिश्ते जलाते हैं।
हुआ इतिहास का अनुवाद इतनी बेईमानी से,
जहाँ वाजिब था मातम हम वहाँ खुशियाँ मानते हैं।
हमारी नींद के दुश्मन सवालों के जवाबों में,
हमारे पास सुबह दोगले अखबार आतें हैं।
इन्हें क्या आदमी गर आज भी सड़कों पे सोता है,
इन्हें कुछ मत कहो ये तो फ कत मंदिर बनाते हैं।
(विचित्रा गुप्ता की लिखी और मेरी पसंद की एक कविता)
No comments:
Post a Comment